Health Insurance Premium में बढ़ोतरी, इन Best तरीक़ों से कर सकते हैं पैसे की बचत 2025

Health Insurance Premium: फ़ाइनेंशियल प्लानिंग में हेल्थ इंश्योरेंस को एक मज़बूत सुरक्षा कवच माना जाता है. लगातार बढ़ते इलाज के ख़र्चों के कारण इसकी अहमियत और भी बढ़ गई है.

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लेकिन हाल के समय में एक चिंता यह है कि Health Insurance Premium लगातार बढ़ रहा है.

इस वजह से कई लोगों के लिए पॉलिसी को रिन्यू करना मुश्किल हो रहा है.

सीनियर सिटीज़न के मामले में प्रीमियम में बढ़ोतरी और ज़्यादा देखी जा रही है.

तो आख़िर Health Insurance Premium महंगे क्यों हो गए हैं और किन तरीक़ों से प्रीमियम घटाया जा सकता है?

पिछले साल भर में कई मामलों में Health Insurance Premium 15 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़े हैं. सीनियर सिटीज़न के मामले में तो यह और भी अधिक है.

Health Insurance Premium में बढ़ोतरी की ऐसी शिकायतों की वजह से इंश्योरेंस रेगुलेटर आईआरडीएआई को इस साल जनवरी में यह निर्देश देना पड़ा कि स्वास्थ्य बीमा कंपनियां 60 साल या इससे अधिक उम्र के पॉलिसी होल्डर का प्रीमियम सालाना 10 फ़ीसदी से ज़्यादा न बढ़ाएं.

क्यों बढ़ रहे हैं प्रीमियम – Why are Health Insurance Premium Increasing?

Health Insurance Premium में बढ़ोतरी

बीमा कंपनियों की ओर से Health Insurance Premium में बढ़ोतरी की जो बड़ी दलील दी जाती है, वह है मेडिकल सेक्टर में बढ़ती महंगाई.

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उनका कहना है कि पिछले कुछ सालों में अस्पतालों के ख़र्च, दवाइयों की क़ीमतों और डायग्नोस्टिक टेस्ट की लागत में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है.

इस वजह से बीमा कंपनियों को क्लेम के लिए ज़्यादा पैसे ख़र्च करने पड़ रहे हैं, जिसका असर प्रीमियम की क़ीमतों पर पड़ता है. इसके अलावा, उम्र बढ़ने के साथ हेल्थ रिस्क भी बढ़ता है और इससे भी Health Insurance Premium की दरों पर असर होता है.

मतलब यह हुआ कि क्लेम रेश्यो का बिगड़ना प्रीमियम के महंगे होने की सबसे बड़ी वजह में से एक है. बीमा कंपनियों का दावा है कि जितना प्रीमियम वे इकट्ठा कर रही हैं, उससे ज़्यादा क्लेम्स आ रहे हैं.

जब क्लेम्स की रक़म प्रीमियम से ज़्यादा हो जाती है, तो कंपनियों को अपने ख़र्चे पूरे करने के लिए प्रीमियम बढ़ाना पड़ता है.

कैसे घटाएं प्रीमियम – How to Reduce the Premium?

Health Insurance Premium में बढ़ोतरी

हालांकि एक्सपर्ट का कहना है कि कुछ ख़ास तरीके़ अपनाकर प्रीमियम को काफ़ी हद तक कम रखा जा सकता है.

कम उम्र में पॉलिसी लें- आप जितने युवा और सेहतमंद होंगे, प्रीमियम भी उतना ही कम होगा, इसलिए कम उम्र में पॉलिसी लेना बेहतर है.

फ़ैमिली फ़्लोटर प्लान चुनने से बढ़ते प्रीमियम का असर कम किया जा सकता है.

कुछ एक्सपर्ट का मानना है कि फ़ैमिली फ़्लोटर में कम उम्र के बच्चों को रखना चाहिए, बुज़ुर्ग पैरेंट्स के लिए इंडिविजुअल पॉलिसी लेना ही बेहतर रहता है.

इसके अलावा, टॉप-अप प्लान भी Health Insurance Premium कम करने का शानदार तरीक़ा है. अगर आप 1 करोड़ रुपये की बेस पॉलिसी लेने की सोच रहे हैं, तो इसके बजाय 10 लाख रुपये की बेस पॉलिसी और 90 लाख रुपये का टॉप-अप प्लान चुनें.

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यह तरीक़ा न सिर्फ़ सस्ता है, बल्कि आपको बड़ा कवर भी देता है. टॉप-अप प्लान उन लोगों के लिए ख़ासतौर पर फ़ायदेमंद है जो कम प्रीमियम में ज़्यादा कवरेज चाहते हैं.

अगर आप लंबी अवधि की पॉलिसी चुनते हैं, तो प्रीमियम में अच्छी ख़ासी बचत हो सकती है. मतलब एक साल के प्रीमियम के बजाय तीन-चार साल के प्रीमियम का एकमुश्त भुगतान करने पर बीमा कंपनियां आकर्षक छूट देती हैं.

इसके अलावा, नेटवर्क हॉस्पिटल्स में इलाज का विकल्प चुनने से इंश्योरेंस प्रीमियम कम हो सकता है. कई बीमा कंपनियां सिबिल स्कोर अच्छा होने पर प्रीमियम में छूट देती हैं.

इसके साथ ही पॉलिसी समय पर रिन्यू कराएं, देरी होने पर जुर्माना लगता है और कवरेज भी लैप्स हो सकती है.

हेल्थ इंश्योरेंस के फ़ायदे – Benefits of Health Insurance

सबसे बड़ा फ़ायदा तो यह है कि किसी बीमारी या मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में आपकी सेविंग्स बच जाती हैं.

दूसरा बड़ा फ़ायदा है- कैशलेस ट्रीटमेंट. मतलब कि हेल्थ कवर होने की स्थिति में आपको अपनी पॉकेट से पैसा नहीं देना पड़ता और ख़र्च इंश्योरेंस कंपनी उठाती है.

ज़्यादातर स्टैंडर्ड पॉलिसी में हॉस्पिटल में एक फ़ीचर होता है- हॉस्पिटल नेटवर्क का, जहाँ आपको कैशलेस ट्रीटमेंट मिल जाता है.

हॉस्पिटलाइज़ेशन के अलावा और भी कई फ़ायदे मिल जाते हैं, जैसे मैटरनिटी बेनिफ़िट. कुछ पॉलिसी में तो डे केयर फ़ैसिलिटी भी मिल जाती हैं.

एक और फ़ायदा टैक्स बेनिफ़िट का भी है. अगर आप ओल्ड टैक्स रिजीम में हैं तो सेक्शन 80डी के तहत आपको टैक्स बेनिफ़िट मिल जाता है.

पॉलिसी लेते वक़्त रखें विशेष ध्यान – Pay Special Attention While Buying a Policy

अब बात पॉलिसी में उन बातों की जिन पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

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सबसे पहले आपको देख लेना चाहिए कि आपके नज़दीकी अस्पतालों में किस पॉलिसी में कैशलेस ट्रीटमेंट की सुविधा उपलब्ध है.

दूसरा यह कि पॉलिसी में प्री और पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन चार्जेज़ कवर हो रहे हैं कि नहीं.

आमतौर पर स्टैंडर्ड पॉलिसी में प्री हॉस्पिटलाइजे़शन 30 से 60 दिनों का होता है, जबकि पोस्ट हॉस्पिटलाइजे़शन में 60 से 180 दिनों तक के ख़र्चे कवर होते हैं.

आप देख लें कि कवरेज पर किसी तरह की सीमा तो नहीं है. मसलन मैटरनिटी बेनिफ़िट में किसी पॉलिसी में 50 हज़ार रुपये तक की ही लिमिट हो सकती है और जहाँ आप ट्रीटमेंट करा रहे हों वहां ख़र्च ज़्यादा हो, तो इस बात का ख़्याल रखना चाहिए.

कुछ पॉलिसी में को-पे का ऑप्शन भी होता है, यानी कि मेडिकल बिल में आपको भी कुछ पैसा देना होगा.. को-पे क्लॉज़ को ध्यान से चेक कर लें.

पॉलिसी में प्री एक्ज़िस्टिंग डिज़ीज़ और वेटिंग पीरियड की क्या नियम और शर्तें हैं, इन्हें ध्यान से पढ़ लें, क्योंकि ये दो टर्म हैं, जिनका ज़िक्र क्लेम रिजेक्शन में सबसे ज़्यादा सुनने को मिलता है.

बीमा नियामक IRDAI कहता है कि पॉलिसी ख़रीदने के 48 महीने पहले तक जिस भी बीमारी का इलाज हुआ है, उसे प्री एक्ज़िस्टिंग डिज़ीज़ माना जाएगा. तो जब भी पॉलिसी लें, कंपनी से इसका ज़िक्र स्पष्ट रूप से कर दें. यानी बीमारी को छिपाना नहीं है बल्कि बताना है.

और अब बात वेटिंग पीरियड की तो स्टैंडर्ड पॉलिसी में ये आमतौर पर 2 से 4 साल का हो सकता है.

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